श्रद्धा-जागरण
विभिन्न जनजातियों की अलग-अलग उपासना पद्धतियां है, परंपराएं हैं। उनकी अपनी धार्मिक मान्यताएं हैं, उनका यशस्वी इतिहास है, उनके त्यागी बलिदानी महापुरुष हुए हैं, इस ओर ध्यान दिलाने का प्रयास ही नहीं किया गया। इसके विपरीत वनवासियों के बीच ईसाइयों द्वारा योजना पूर्वक अनेक प्रकार के भ्रम फैलाए गए। जैसे कि वनवासियों का कोई धर्म नहीं है। वनवासी मूल निवासी है। वनवासी हिंदू नहीं है वनवासी प्रकृति पूजक है इत्यादि। वनवासियों की जो आस्थाएं है उनके प्रति स्वाभिमान जगे, उसमें वे दृढ़ रहे और वनवासी समाज अपना नेतृत्व विकसित करते हुए संगठित हो इस हेतु कल्याण आश्रम ने श्रद्धा जागरण आयाम विकसित किया।
श्रद्धा जागरण आयाम के अंतर्गत गांव गांव में श्रद्धा जागरण केंद्र, सत्संग केंद्र और भजन मंडलियां प्रारंभ की जाती है। इन केंद्रों में महिला-पुरुष सब आते हैं। सब लोग अपने-अपने क्षेत्र में मान्यता प्राप्त भगवान का स्मरण करते हैं। मृदंग, ढोलक और मजीरे की ताल पर भक्ति भाव पूर्वक भजन गाए जाते हैं। भजन के बाद सत्संग होता है। इसमें धर्म के बारे में जानकारियां दी जाती है। कहीं-कहीं धार्मिक ग्रंथों का पठन होता है। अपने धर्म-संस्कृति-परंपरा-रीति रिवाज-उत्सव-त्योहार के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। सामूहिक रूप से पर्व उत्सव मनाए जाते हैं। कभी-कभी नगर जन इनमें सहभागी होते हैं तो कभी किसी साधु-महात्मा का मार्गदर्शन मिलता है। वनवासी ग्राम का सारा वातावरण धर्ममय हो जाता है। साधु-संतों का प्रवास और इस निमित्त होने वाले सत्संग भी धर्म जागृति के माध्यम बनते हैं। पुजारियों अथवा पाहनों का सम्मेलन, करमा पूजा, सरहुल पूजा आदि विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है। समय-समय पर आयोजित छोटे-बड़े ग्रामीण एवं प्रांतीय स्तर के वनवासी सम्मेलनों में सुविख्यात साधु-संतों-सन्यासियों के दर्शन प्रवचनों के द्वारा भी उनकी श्रद्धा को बलवती बनाने का अखंड प्रयास किया जाता है।