जनजातीय समाज में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन एवं पर्व-उत्सव के लिए भिन्न-भिन्न लोक गीत, लोक नृत्य एवं अन्य अनेक सांस्कृतिक धार्मिक उत्तम परंपराएं विद्यमान है। उनके विशिष्ट वाद्य यंत्र एवं परंपरागत वेश-भूषा है। वनवासियों में अनेक कलाओं के गुण जन्मजात होते हैं जैसे गायन, नृत्य कला, वादन कला, चित्रकारी, कलात्मक बुनाई आदि। वनवासी कल्याण आश्रम ने जनजातियों की इन लोक कलाओं को जीवित, संरक्षित व प्रोत्साहित करने के लिए लोक कला मंडल का शुभारंभ किया।
नगरीय जीवन शैली के प्रभाव के कारण जनजातीय क्षेत्रों में भी लोक कलाएं शनै:-शनै: विलुप्त हो रही है। इन्हीं पुनर्जीवित करने एवं कलाकारों को बहुमान देने की बहुत आवश्यकता है। इस दिशा में कल्याण आश्रम द्वारा प्रारंभ किए गए लोक कला मंडल निश्चित रूप से सराहनीय कार्य कर रहे हैं।
प्रतिवर्ष होने वाले अखिल भारतीय कार्यकर्ता सम्मेलनों, छात्रावासों के वार्षिकोत्सव तथा प्रांतीय वनवासी सम्मेलनों में लगभग प्रत्येक जनजातीय प्रतिनिधि महिला पुरुषों को अपनी-अपनी लोक कलाओं, लोक-नृत्यों और लोकगीतों का सशक्त व भव्य आयोजन करने का अवसर प्राप्त होता है। वे अपने-अपने स्थानों से पूरी साज-सज्जा सहित इसकी तैयारी करके आते हैं। सम्मेलन के स्थान पर प्रतिवर्ष यह आयोजन संपूर्ण देश की राष्ट्रीय एकात्मता का परिचायक होता है। लोक कला मंडल के द्वारा समय-समय पर विविध आयोजन वनवासियों के पर्वों पर भी होते रहते हैं।
कह सकते हैं कि वनवासी समाज की नैसर्गिक प्रतिभा को उभारने में लोक कला मंडल का महत्वपूर्ण योगदान है।