रामायण कथा वनवासियों के पराक्रम और अतुल्य सामर्थ्य की कथा है, जिसमें उन्होंने राम के नेतृत्व में पूंजीवाद, आतंकवाद के पोषक साम्राज्यवादी रावण को पराजित कर सोने की लंका को धूल धूसरित कर दिया। रामकथा यथार्थ में वनवासियों के मुक्ति संघर्ष और विजय की अमर कथा है। इस कथा के नायक ने स्वयं वनवासी बनना स्वीकारा और तमाम वनवासियों को अपने बराबरी में खड़ा कर के समाज को समत्व की नयी परिभाषा दी।
वेद और पावन ऋचाएँ हमारी अरण्य संस्कृति की अमूल्य निधि हैं। वन हमारी बहुमूल्य संपदा है। हमारे देवी देवता मूलत: वनों में ही अपने दिव्यत्व को प्राप्त होते रहे। हमारे साहित्य, समाज और संस्कृति के मूल स्तंभ पुराण, उपनिषद, वनों के क्रोड में ही विकसित हुए, और इन्हें रचने में वनवासी समाज का बहुत योगदान है। रामायण और महाभारत वनवासियों के अतुल सामर्थ्य और पराक्रम की कथा है। भगवान शंकर जैव विविधता और प्रकृति के घनीभूत तेजपुंज हैं। शबरी, बाली, सुग्रीव,अंगद, हनुमान, एकलव्य, बर्बरीक, घटोत्कच आदि हमारे समाज के स्मरणीय संकल्प हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में भी वनवासी समाज कभी पीछे नहीं रहा। इसीलिए बिरसा मुंडा, भांगारे, तलक्कल चंदू, उड़ीसा में विशोई, मेघालय में तिरोट गाना, बिहार में संथाल नेता (सिद्दो, कानू, और तिलका मांझी), रानी गाइदिन्ल्यू और मणिपुर के शाहिद जादोनंग, राजस्थान के पुंजा भील आदि प्रात: स्मरणीय़ हीरो हैं।
ये वनवासी सनातन से चले आ रहे भारतीय कुल परिवार के अभिन्न और अविभाज्य जन हैं। यदि कोई विभेद है तो वह है जीवन और विचार शैली का, परंपरा परिवेश और पर्यावास का। अब प्रश्न यह है कि अमूल्य धरोहर वनवासी समाज ही विकास की दौड़ में पीछे क्यों रह गया जबकि अरण्य संस्कृति का विस्तार ग्राम्य और नगर संस्कृति तक हुआ। आज वनवासियों के समक्ष अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संघर्ष है। इनकी आर्थिक,आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अस्मिता को बचाए रखना समय की आवश्यकता है। वनवासी समाज के इसी स्वाभिमान की रक्षा के लिए वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना 26 दिसंबर 1952 को मध्य प्रदेश के जशपुर में (वर्तमान में छत्तीसगढ़ में) नामांकन करके की गई थी। छात्रावास परियोजना शुरू करने के लिए स्थानीय जनजति के 13 बच्चे थे।
वन में बसी जनजातियों के कल्याण के लिए विभिन्न परियोजनाओं की सफलता से प्रोत्साहित होकर, 1978 से, वनवासी कल्याण आश्रम ने भारत के प्रत्येक राज्य में जनजाति बहुलआबादी वाले क्षेत्र में अपने काम को बढ़ाया। इसी प्रकल्प में पूर्वांचल कल्याण आश्रम पश्चिम बंगाल वनवासी समाज के स्वाभिमान को बचाए रखने के लिए अनेक योजनाएँ संचालित करता है। पूर्वांचल कल्याण आश्रम के सभी कार्यकर्ता बन्धु भगिनी जनजाति समाज के आर्थिक, आध्यात्मिक, शारीरिक, सास्कृतिक, सामाजिक, स्वास्थ्य से जुड़ी परियोजनाओं के लिए पूरे मनोयोग से कार्य कर रहे हैं।
देश की जनसंख्या का लगभग 10% जनजातीय समाज है लेकिन सबसे ज्यादा शोषित पीड़ित और विदेशी षडयंत्रों का शिकार होने वाला समाज भी यही है। अपनों ने भुलाया तो गैरों ने सताया, ऐसी स्थिति है इनकी। मार्क्सवादी माफिया, मुस्लिम घुसपैठिए तथा विदेशी पादरी उनसे उनकी भूमि, धर्म, संस्कृति, भाषा, लोकाचार तथा राष्ट्रीयता छीन रहे हैं। उनका आर्थिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक शोषण कर रहे हैं। बीसियों विद्रोही संगठन इन वनवासियों को हिंदू जीवनधारा से काटकर भारत के विरुद्ध खड़ा करने की साजिशें रच रहे हैं।
वनवासी सीधे हैं, सरल हैं और सदियों से चली आ रही पावन निष्पाप जीवन शैली के प्रतिबिंब हैं। यही कारण है कि विदेशी षड्यंत्रकारी उन्हें अपने भारत छोड़ो अभियान का एक खिलौना बनाने में आसानी महसूस करते हैं। धर्म और संस्कृति की संपदा से अत्यंत समृद्ध होने के बावजूद आधुनिक जीवन शैली से नितांत अपरिचित शिक्षा और विज्ञान की मुख्यधारा से दूर देश के 11 करोड़ के वनवासी समाज को अलग और तिरस्कृत छोड़ दिया गया है। नगरीय समाज अपने ऐशो आराम, नौकरियां एवं व्यापार में इस कदर लिप्त है मानो इन सबसे उनका कोई सरोकार ही नहीं है। सदा से ही इस समाज का दुख-दर्द, घाव, चीखें अनसुनी की गई। क्या यह जनजातीय समाज शेष भारतीय समाज के अपने ही रक्तबंधु नहीं? ऐसे दायित्वशून्य सोए हुए समाज को जगाने का कार्य प्रारंभ किया है अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम ने।
1952 में छत्तीसगढ़ के जशपुर में वनयोगी बाला साहब देशपांडे ने परम पूज्य गुरु जी की प्रेरणा से जो कार्य प्रारंभ किया वह आज वट वृक्ष का रूप ले चुका है।हमारा उद्देश्य और लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट है। सदियों से उपेक्षित वनवासी समाज के बीच शिक्षा, चिकित्सा, संस्कार, स्वावलंबन, श्रद्धा-जागरण, खेलकूद के हजारों प्रकल्प चलाकर उनको स्वावलंबी, स्वाभिमानी बनाना तथा उनमें यह भाव जागृत करना कि राष्ट्र के पुनर्निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। 950 पूर्णकालिक एवं लक्ष-लक्ष अंशकालिक कार्यकर्ता बिना किसी नाम, यश, पद की कामना के वनवासी समाज के प्रति श्रद्धा एवं आत्मीय भाव लेकर इस विराट राष्ट्रीय कार्य में जुटे हैं। 1975 में इस पवित्र कार्य को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया गया और आज देश के सभी प्रांतों में हमारा कार्य है, 90% से अधिक जिले कार्यरत हैं। हजारों ग्रामीण एवं नगरीय समितियां सक्रिय हैं। पश्चिम बंगाल में हमारा कार्य पूर्वांचल कल्याण आश्रम नाम से पंजीकृत है। शिक्षा, आरोग्य, श्रद्धा-जागरण, खेलकूद, ग्राम विकास हित रक्षा जैसे कई आयामों के माध्यम से और कार्यकर्ताओं के सामूहिक प्रयासों से कार्य निरंतर बढ़ रहा है।
India has a very rich heritage with a glorious history and our Vanvasi/Tribal brethren have a great influence and contribution to its making.
Ramayan is the story of glorious valour & ability of Vanvasis, wherein under able leadership of Shree Ram they defeated the capitalistic, terror breeding, territorially aggressive Ravana. Ramayan is an immortal story of freedom and victory of Vanvasis. The main character ‘Ram’ of this story became a Vanvasi himself to give the Vanvasi society a complete sense of inclusiveness.
Vedic rhymes are an invaluable treasure of our forest culture. Our sages and rishis attained enlightenment in the forest. Our spiritual granthas like Vedas, Purans, Upnishads etc. evolved and were written in the lap of nature. Sabari, Bali, Sugriv, Angad, Hanuman, Eklavya, Barbarik, Ghatotkacha and many more are unforgettable characters.
In ancient times all education was concentrated in the villages and forests as all Rishis and
Great teachers had their Ashrams in forests where children of both forest dwellers (Vanvasi) and city dwellers (Nagarwasi) including members of the Ruling classes went to study various disciplines.
In the struggle against the Mughals and British, there are many known and unknown Vanvasi heroes like Birsa Munda, Talakkal Chandu of Kerela, Chakra Bishoi of Odisha, Tirot Sing of Meghalaya, Siddhu-Kanu, and Tilka Majhi of Bihar/Jharkhand, Rani Gaidiliu of Nagaland, Shahid Jadonang of Manipur, Punja Bhil of Rajasthan etc.
In their efforts to divide and crush the spirit of India, the British found the Tribals to be the toughest to break and so they started working on various schemes to create a difference and suspicion between the Nagarwasis and the tribals. They managed to take away education from the forests and bring it to the cities leaving the Tribals illiterate and hence depriving the Vanvasis of the benefits of education. They created all sorts of systems which were of disadvantage to the tribals leading them to a life of poverty and deprivation. They told the tribals that, just like the Mughals and British, the city people or the Aryans had also come from outside India and pushed them into the forests and had become the ruling class. They spread the message among the tribals that all the stories of Ramayana and Mahabharata, which proved the co- existence of the Nagarwasis & Vanvasis since time immemorable were mere mythological myths.
Unfortunately, even after independence little was done for the upliftment of the tribals, causing further frustration, suspicion, and rift. The Christian missionaries used this shortcoming of our government to provide humanitarian aid to the tribals and thereafter convert them into Christianity and develop an anti-India sentiment in them. This helped all insurgent groups in Central India and Northeast India to get their strength from our tribal brethren.
To overcome this problem and prevent a further division of our country, Shri Balasaheb ji Despande laid the foundation of the Vanvasi Kalyan Ashram in 1952 with the establishment of a Boys’ hostel with 12 students in the town of Jashpur (then in Madhya Pradesh) now in Chhattisgarh.
The aim of the Vanvasi Kalyan Ashram is to bring about the All-round development of our Tribal Brethren, to make them aware of their rich culture, heritage, contribution to various struggles for the independence of India, develop the feeling of Nationalism and to bring them into the mainstream life. Kalyan Ashram also make aware the Nagarwasis of the plight of the Tribal brethren and aims at developing a feeling of harmony and brotherhood between the tribal and urban community.
From a modest beginning in 1952, the Ashram has grown manifold and spread all over the country in the last 70 years. Today we have about one thousand full time Karyakartas (who have devoted their life for the Ashram work) and thousands of part time and honorary karyakartas managing the various activities like Youth(Boys & Girls) Hostels, One Teacher Schools, Medical Centres, Sports Centres, Shradha Jagran Centres, Vocational training Centres, Self-Help Groups etc.
The Nagar Samities regularly conduct various programs like Makar Sankranti Camps, Ram Navami Programs, Seva Patra collections, Annual Programme, Diwali Diya project etc. to spread awareness among the city people and to collect funds required for the various Ashram activities. Programs like Van Yatra (visit to tribal areas), Van Jeevan (Children staying in tribal areas or youth hostel for 7 days), Shishu Mela, education camps, etc are organised with the aim to bring the Nagarwasi & Vanvasi close to each other and help develop empathy for each other.
In the southern part of West Bengal, we are known as Purvanchal Kalyan Ashram registered under the provisions of West Bengal Societies Registration Act, 1961 and Income Tax Act, 1961. Our guiding body is Akhil Bharatiya Vanvasi Kalyan Ashram having its main office at Jashpur Nagar in Chhattisgarh.